POLITICS/राजनीति
जनता की खुशियां ना तुम्हें पसंद है,
ना ही उन्हें खुशहाल करने की
मेरी कोई मंशा,
तेरी मेरी हमदोनों की ख्वाहिशें एक,
कैसे कुर्सी को पाऊं।
बह रहे हैं रक्त अब भी,
कल भी लहू ही बहेगा,
पीस रहे हैं गरीब अब भी,
कल भी गरीब ही तड़पेगा,
कुछ नही बदला,कल में और आज में,
ना ही कुछ कल बदलने वाला,
तख्त वही,ताज भी वही होगा,
बदल जायेंगे सिर्फ चेहरे,
शोषित तो कल भी थे,कल भी रहेंगे,
जो आहूत होते रहेंगे,कभी धर्म कभी जातियों की बलिबेदी पर।
खैर,हासिए पर लाकर खड़ा कर दिया था तुमने हमें,
लोगों को धर्मों में उलझाकर,
लो मैं पुनर्जीवित हो गया,
लोगों को जातियों का पाठ पढ़ाकर।
!!!मधुसुदन!!!
Beautiful poem with effective verses.
भाई साहब सुस्वागतम 💐💐
धन्यवाद भाई जी।
Impressive
Thank you very much for your valuable comments.🙏
यह कविता समाजिक मुद्दों और परिवर्तन के संघर्ष पर एक प्रभावशाली विचार है। इसमें जनता की सार्थकता के प्रति उदासीनता और असमानता के लिए संघर्ष को परिपूर्ण तरीके से प्रकट किया गया है। छवि और भावनाओं को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया गया है। बढ़िया काम!
जनता गौण,
और धर्म एवं जातियाँ अट्टहास कर रही,
अपने स्वार्थ विजय पर।
तथा कही दब कर रह गए विचार
पूंजीपति एवं सर्वहारा वर्ग के,
अमीर एवं गरीब के,
शोषित एवं शोषणकर्ता के।
चले थे जो जातिवाद मिटाने
जातिवाद में ही उलझकर रह गए,
ख्वाब था आएगा परिवर्तन आजादी के बाद,
टूटेंगी बेड़ियां,मिटेंगी दूरियां,
अमीर गरीब की,
जाति धर्म की,
छुआछूत की,
आयेंगे निश्चित ही करीब
हम सभी एक दिन,
मगर ये निश्चित पर मानो,
चिरकाल के लिए ग्रहण सा लग गए,
हम सभी पुनः एकबार राजनीतिज्ञों के लिए
सिर्फ प्यादे बनकर रह गए।
बहुत बहुत धन्यवाद आपका पसंद करने एवं अपने विचार व्यक्त करने के लिए।