बेटियाँ, बेटियाँ, बेटियाँ,
जिनपर सभ्य समाज के कुछ संरक्षक,
पूर्व से लेकर अभी तक,
धर्म के नाम पैरों में बेड़ी लगाया है,
आधी आबादी,अस्तित्व जो पुरुषों का,
उनको घूंघट और बुर्का पहनाया है,
वैसे तो कल भी कुछ बेटियों को आजादी थी,
बहुत सी बेटीयों पर आज भी,
और कल भी पुरुष मानसिकता हावी थी,
परन्तु,जब भी मौका मिला बेटियों ने,
अपनी क्षमता दिखाया है,
पुरुष सोच अहंकार को,
मिट्टी में मिलाया है,
सावित्री खुद से वर ढूंढा था,
सती अनसुईया ने तो छह महीने,
ईश्वर तक को गोद मे रखा था,
कैकई राजा दशरथ संग,
रण भूमि में भी जाया करती थी,
मुशीबत आने पर अपनी वीरता,
दिखाया करती थी,
भरी पड़ी है इतिहास नारियों के,
वीरता ,शोहरत,बलिदान की गाथा से,
कब उठाएगा पुरुष घूंघट और बुर्के को
रजिया बेगम,झांसी की रानी सरीखे,
अनगिनत बेटियाँ,
आज भी बैठी है आशा से,
ऐ पुरुष मानसिकता वाले इंसान,
आ अपनी मानसिकता मिटा दो,
खुद को तेरे लिए कुर्बान करने को बैठी,
नारियों का बुर्का और पर्दा हटा दो,
वरना अब वह दिन दूर नही जब,
जब सारे बन्धन टूट जाएंगी,
बेटियाँ भी तम्हारे संग मिल,
इतिहास दुहराएँगी।
Sikiladi says
Weh din bhi door nahin jab betiyan itihas dohraengi…
Loved this poem as a revelation of historic facts and being futuristic at the same time. A glorious description of the girl child.
Madhusudan says
Aap hamare blog par aaye padha pasand kiya aur saraaha uske liye bahut bahut abhaar apka.