Anokhe Prem ka Dand

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कैसे कहूं आज कितना,
ख़ुशी का दिन है,
मानो चौदह वर्षों बाद,
कोई मिलन का दिन है,
मन में हजारों भाव,
मानो मशीन लगी हो पाँव,
तीन बजे सुबह से ही छटपट,
पसीने से लतपथ,
घर को सजाती,
मन पसंद ब्यंजन बनाती,
पता है आने का समय फिर भी,
किसी भी आहट पर,
दरवाजे की ओर नजर दौड़ाती,
आखिर बेचैन हो भी क्यों ना,
माँ जो ठहरी,
कौन समझ पाया इसके,
ममता,वात्सल्य को,
कौन समझ पाया इसके,
करुणा और प्यार को,
मगर इन सारी बातों से बेखबर,
उसे इतनी ख़ुशी हो भी क्यों ना,
तीन महीने बाद जिगर का टुकड़ा,
कॉलेज से छुट्टी में वापस जो रहा है|

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आज पति का भाव,
थोड़ा कम है,
वो भी दौड़-दौड़ दूकान से,
सामान लाता,
घर के सामान को,
सलीके से सजाता,
मैडम कभी हुक्म नहीं चलाती थी,
मगर आज वो भी,
अनगिनत हुक्म सुनाती है,
रसोई से ही बड़बड़ाती है,
सुनते हो….,
कुछ तो बोलो,
दरवाजे का ताला तो खोलो,
पति भी मुस्कुराकर,
सिर झुकाकर,
एक-एक हुक्म निभाता है,
इस अनोखे प्रेम का स्वयं,
हिस्सेदार बन जाता है,
आखिर वह बाप जो है,
भला कौन समझ पाया है,
उस पत्थर से दिखनेवाले,
कोमल दिल बाप को,
जो कलेजे पर पत्थर रख,
अपने जिगर के टुकड़े को,
हर एक गलती पर,
समझाता और फटकारता है,
धोका ना खा सके जमाने में,
प्रेम से वंचित हो,
इस कदर उसे तरासता है,
मगर इन सारी बातों से बेखबर,
उसे इतनी ख़ुशी हो भी क्यों ना,
पहली बार घर से बाहर गया,
ख़्वाबों का शहजादा,
छुट्टी में घर वापस जो आ रहा है |

मात-पिता जग में अनमोल,
इनको दुनियाँ सका ना तौल,
दोनों हैं भगवान धरा के,
अपनी बुद्धि का पट खोल।

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!!! मधुसूदन !!!

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