Kaash….Ek Kachot
जैसे थे हम अच्छे थे, वैसा ही रहने देते,
जाति-धर्म,का भेद मिटा,कुछ प्रेम का तोहफा देते ||
याद है बचपन की सब बातें, साथ में खेला करते थे,
हिन्दू-मुस्लिम,जात-पात का, मतलब नहीं समझते थे,
घर में मिलती डांट सजा, हम कहाँ सुधरनेवाले थे,
मिले नहीं गर सुबह कहाँ फिर, दिन गुजरनेवाले थे,
घरवाले सब कहकर हारे,अंत में थे सब साथ हमारे,
हम, मुस्लिम, रजवार के घर, वे मेरे घर में खाते,
लूट लिया सुख चैन गांव का,काश प्रेम रहने देते,
जाति-धर्म,का भेद मिटा,कुछ प्रेम का तोहफा देते ||
समय के साथ में बड़े हुए पर साथ नहीं हम छोड़े थे,
मज़बूरी ने घात किया,सब अश्क आँख के बोले थे,
साथ में कोई सफर में पीछे कोई आगे निकल गए,
मज़बूरी ने चोट किया कुछ बीच सफर में बिखर गए,
आये थे संसार अकेले हम फिर तनहा बन बैठे,
यादें थी बस साथ हमारे हम अनजाना बन बैठे,
मज़बूरी,हालात पर रोये,बचपन के सब साथी खोये,
सिस्टम की ये रीत गरीबी, काश ये गड्ढे ना होते,
जाति-धर्म,का भेद मिटा,कुछ प्रेम का तोहफा देते ||
साथी कुछ मजदुर बने, कुछ रेस में आगे निकल गए,
साथी थे कुछ साथ पास जाति का लेकर निकल गए,
निकल गए जो पास के बल उनकी जिज्ञासा हममे थी,
बचपन में मजदुर बना उसकी भी आशा हममे थी,
आंखों में आंसू थे सबके गम और ख़ुशी के मिले हुए,
तड़प रहे सब देख के सिस्टम, आँख में आसूं भरे हुए,
कल तक थे हम साथ वही दो खेमो में हैं बँटे हुए,
स्वार्थ की कैसी दौड़ चली, हैं प्रेम के दुश्मन बने हुए,
नफरत थी द्वापर जैसी पर किसका मैं प्रतिरोध करूँ,
जहां भी देखूं अपने दीखते कहाँ प्रकट मैं रोष करूँ,
मंजिल की दहलीज़ पे हमने,छला हुआ खुद को जाना,
जात-पात की राजनीत, नजदीक से हमने पहचाना,
हिन्दू,मुस्लिम,जात के बदले जगत में बस इंसाँ होता,
नफरत की सब तोड़ दीवारें,काश साथ सब को करते,
जाति-धर्म,का भेद मिटा,कुछ प्रेम का तोहफा देते ||
जाति-धर्म,का भेद मिटा,कुछ प्रेम का तोहफा देते ||
!!! मधुसूदन !!!
A lovely poem with great message given by you.
Thank you very much for your valuable comments.