KISAAN KAA JEEVAN

भूख मिटाता कृषक जगत का,क़द्र ना उसका जाना रे,
सदियाँ बीत गयी कितनी इंसान उसे ना माना रे|

अतिबृष्टि और अनाबृष्टि के,
साथ में लड़ता रोज किसान,
मानसून भगवान् है जिसका,
उसी ने कर दी मुश्किल जान,
बिकसित देश की रेस में हम है,
मंगल,चाँद की रेस में हम है,
धड़कन बसती देश का जिसमें,
उसी गांव की धड़कन हम हैं,
धड़कन रोक हमारी कैसे खुद को बिकसित माना रे,
भूख मिटाता जग का उसी किसान का क़द्र न जाना रे|

बैलों के संग बैल बने,
खेतों में अबिचल रहते हैं,
सर्दी,बारिस,धुप जलाती,
मिहनत से ना डरते हैं,
खेतों की पगडण्डी पर ही,
डाईनिंग टेबल सजती है,
रात-दिन में फर्क ना समझा,
खेत ही बिस्तर बनती है,
बंजर भूमि मोम बनाते,
खून-पसीना रोज बहाते,
एक-एक पौधों को सींचूँ,
सोने जैसे फसल उगाते,
खून-पसीने की कीमत कौड़ी से सस्ता जाना रे,
सदियाँ बीत गयी कितनी इंसान उसे ना माना रे|

युग बदला इंसान बदल गए,
टुकड़े-टुकड़े खेत के बन गए,
सस्ती का वो दौर नहीं अब,
बीज-खाद के भाव भी बढ़ गए,
मजदूरों की कीमत सुनकर,
आखें नम हो जाती है,
पशुओं की बाजार में कीमत,
खून की अश्क रुलाती है,
सरसों साग के साथ में रोटी,
और ना कोई थी चाहत,
महँगी के इस दौर में अब तो,
आयी इसपर भी आफत,
कृषक सभी मजदुर बने हैं,
फिर भी चैन नहीं आती,
कर्ज में डूबे कृषक बेचारे,
मौत ही मंजिल दिखलाती,
संबिधान मनमर्जी बदला,कृषक को ना कोई जाना रे,
सदियाँ बीत गयी कितनी इंसान उसे ना माना रे|

रक्षक सारे भक्षक बन गए,
फूस मड़ैया टूट गयी,
थाली में दो वक्त की रोटी,
भी किस्मत से रूठ गयी,
कितने घर के बाहर ताले,
कितनी बगियाँ उजड़ गयी,
खलिहानों की रौनक बिखरी,
गांव की गलियाँ सिसक रही,
रक्षक अब भी होश में आओ,
वरना गांव नहीं होगा,
कृषक बिना तेरी थाली भी,
रोटी बिन सूना होगा,
खुद भूखे जग भूख मिटाते,क़द्र ना उसका जाना रे,
सदियाँ बीत गयी कितनी इंसान उसे ना माना रे|
सदियाँ बीत गयी कितनी इंसान उसे ना माना रे|

!!! मधुसूदन !!!

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