SAMAANTA/समानता

एक किसान था जिसका नाम था हरखू। विरासत में उसे तीन एकड़ जमीन मिली थी जिसपर वह खेती कर किसी तरह अपना जीवन यापन करता था। उसके दो बेटे थे, जिसे किसानी के बल पढ़ा लिखाकर ऑफिसर बनाने का ख्वाब देखा करता था। उसने दोनों की पढ़ाई में कोई कसर नहीं छोड़ी । घर में दिए जले ना जले बच्चों के लालटेन में किरोसिन हमेशा भरा रहता था।जब भी किताब की जरूरत होती, वह प्रत्येक खर्चे को रोक उसे बाजार से ले आता। जब भी काम से फुर्सत मिलती उन दोनों के पास बैठ पढ़ते हुए निहारते रहता। लोग कहते हैं–

“होनहार बिरवान के होत है चिकने पात,”

उसका एक बच्चा पढ़ने में खूब ध्यान लगाता और दूसरा शायद ही कभी पढ़ता। नतीजा पहला दिन-प्रतिदिन ऊँचाई चढ़ता गया और एक दिन बहुत बड़ा ऑफिसर बन गया और दूसरा गली का धूल बनकर रह गया।
दिन गुजरता रहा एक बेटा अपने पत्नी के साथ गाँव मे और दूसरा शहर में रहने लगा। उसने अपने भाई को व्यापार करने को पैसे भी दिए मगर उसने उसे भी बर्बाद कर दिया।
लोग ठीक ही कहते हैं,

“पूत कपूत तो क्या धन संचय,पूत सपूत तो क्या धन संचय।”

अब जब भी वह गाँव आता सबके लिए कपड़े और मिठाई लाता।अपने भतीजों का वह बहुत ज्यादा ख्याल रखता। किंतु माँ-बाप एक को खुशहाल और दूसरे को दीन देख खुश नहीं रहते थे। मग़र करते भी क्या, उन्होंने दोनों को ही अच्छी परवरिश देने में कोई कसर नही छोड़ी थी।
अब अगर उनका न्याय ये होता कि

“पहले का सुख छीन दूसरे को दे दे तो कैसा होता।”

माँ,बाप थे कोई राजनीतिज्ञ नहीं,ऐसा वे सपने में भी नहीं सोंच सकते।

जरा सोंचिये जब एक पिता अपने दो बच्चे में समानता नहीं ला सकता फिर देश में सबको एक समान करना कितना कठिन हैं।मगर जब भी हमारे बीच से कोई समानता लाने की बात करता है तब हमें मिहनत किए वगैर,ऐसा लगने लगता है जैसे हम जल्द ही टाटा या अम्बानी बन जाएंगे या वे हमारे जैसे कटोरा लेकर सड़क पर आ जाएंगे। मगर होता क्या है हम अम्बानी बने ना बने वे अम्बानी जरूर बन जाते हैं जो हमें झूठी ख्वाब दिखाते हैं तथा उन अमीरों के साथ बैठ मजे से पुलाव खाते हैं।

हम कभी ये नहीं सोचते कि परिवार छोटा रखें और उन्हें ही अच्छी परवरिश दें। जिसे जो बनना है वही बनेगा। इस जहाँ में सब दिन किसान-मजदूर,पूँजीपति-निर्धन,ज्ञानी और अज्ञानी थे और रहेंगे।

अगर इसी कहानी को मध्येनजर रखते हुए
अपने देश की चर्चा करें तो यहाँ,
प्रेम की जगह तुष्टिकरण और स्वार्थ चरम पर है।
लोग अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए
किसी भी हद तक जाने को आमदा हैं।
उन्हें किसान,गरीब,असहाय,निर्बल,प्रतिभावान नहीं
सिर्फ जातियाँ और धार्मिक लोग दिखते हैं
और फैसले सदैव
उन्हीं के पक्ष में करते हैं।

लोकतंत्र संख्या बल का खेल है
जहाँ जनता को केवल अमीर और गरीब के रूप में देखा जाए तो
लोकतंत्र जैसा खूबसूरत कोई तंत्र नहीं
परंतु जनता की पहचान
जातियों एवं धर्मों से हो तो
इस तंत्र जैसा बुरा कोई तंत्र भी नहीं।
देश कल और आज भी
जाति,मजहब और क्ष्रेत्र के नाम गोलबंद है,
तथा सिंघासन पर बैठे लोग
धर्म,जाति और क्षेत्र आधारित कानून बनाने को मजबूर।
अगर कोई साथ जोड़नेवाला कानून लाने की बात करता है तो लोग
जाति,धर्म,क्षेत्र पर खतरा बताने लगते हैं और,उसके खिलाफ नारे बुलन्द करने लगते हैं।
आज किसी को हिन्दू खतरे में दिखाई दे रहा है
किसी को इस्लाम,
किसी को क्षेत्र की पड़ी है तो किसी को
जातियों की,
इन सबके के बीच वतन गौण हो गया है,
संविधान हमारा मौन हो गया है।
स्वार्थ में लोग शायद भूल गए
जबतक देश है
तबतक हमारा अस्तित्व,
धर्म और जातियाँ तो वहाँ भी है जहाँ देश नहीं,
मगर हम कहीं के लायक नहीं
जब सुरक्षित देश नहीं।

हमारे देश में ऐसे बहुत लोग हैं जिनका सालाना आय तीन लाख रुपये से भी कम है।अगर सरकार को देश एवं गरीबों का ख्याल है तो बिना जाति,धर्म का नाम लिए इनको सभी तरह की सहायता दे और शेष को सभी सरकारी अनुदान से दूर रखें।देश जरूर आगे बढ़ेगा।

!!!मधुसूदन!!!

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