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पराधीन रहना ना जाना,
जीते जी था हार ना माना,
त्याग सुख महलों की जिसने,खाई रोटी घास की,
दोहराता हूँ कथा वीर उस महाराणा प्रताप की|२|
स्वर्णअक्षरों में अंकित,इतिहास भी शीश झुकाता है,
जो मातृभूमि की शान में अपनी,हँसकर शीश कटाता है,
वीरों से धरती भरी पड़ी,इतिहास भरी गाथाओं से,
भारत की धरती लाल पड़ी,उनकी शोणित धाराओं से,
बलिदान की गाथा कहती है,हल्दीघाटी की मैदाने,
अब भी शमशीर उगलती है,हल्दीघाटी की मैदाने,
रजवाड़े होते साथ अगर कल,काल वहाँ थर्रा जाता,
थी अकबर की औकात कहाँ जो राणा से टकरा पाता,
योद्धा था साढ़े सात फिट का,शेर का जिगरा रखता था,
था वजन एक सौ दस किलो का चीते जैसा चलता था,
थी कवच वदन पर सजती उसकी वजन बहत्तर किलो की,
संग किलो दो सौ आठ वजन हथियार सदा वह रखता था,
था वजनी जितना अकबर केवल भाला थी प्रताप की,
दोहराता हूँ कथा वीर उस महाराणा प्रताप की|२|1