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संसद मूक,
सिंघासनाधीश-प्रजापालक मौन,
स्वयं को सहनशील बोल शोर मचानेवाले वुद्धिजीवी मौन,
जिन्हें देख मौन थी लेखनी,शब्द स्तब्ध,
मैं क्या लिखता?
क्या हमेशा की तरह
नारियों पर होते जुल्म की दास्तान लिखता,
तड़पती बेटियों की चीख,पुकार लिखता,
या कापुरुषों की जमात में खड़े,
खुद को धिक्कार लिखता
मैं क्या लिखता?
आखिर मैं कैसे लिखता उसकी चीख पुकार को
कैसे लिखता उन दरिंदो के अत्याचार को,
न जाने वह कितना गिड़गिड़ाई होगी,
कितना तड़पी,छटपटाई होगी,
जब उसकी अस्मत लूट दरिंदों ने,
उसे जिंदा जलाई होगी,
मैं क्या लिखता?
क्या हमेशा की तरह
चीर हरण करते दुशासन का अट्टाहास लिखता,
या मौन पड़े भीष्म,द्रोण,धृष्टराष्ट्र का
सत्ता सुख विलास लिखता।
मैं क्या लिखता?
मगर
आज बहुत दिनों बाद लेखनी हरकत में आयी है,
आक्रोशित शब्दों को राह दिखाई है,
आज बहुत दिनों बाद मेरे दिल को
सुकून मिला,शांत है मन,
शांत हैं फिजायें,
और शांत है बर्बरों का जिस्म,
दरिंदों की कोई जात कोई धर्म नही,
उनके रूप बदले,नाम बदले,
मगर स्वभाव नही बदले,
और ना ही बदले सियासतदार,
और ये समाज भी,
अब तुम बुर्के पहन या घूँघट डाल,
चाहे पुरे बदन क्यों न चादरों में लपेट,
मगर उन चिल्हों की नजर से तुम दूर नहीं,
उम्र आठ की हो या साठ की
फिर भी लगता है तुम महफूज नही,
एक तरफ भेड़िये भेष बदल तेरे पास खड़े हैं,
दूसरी तरफ तेरे मान-सम्मान के लिए कुछ पुरुष
आज भी उनके खिलाफ अड़े हैं,
मगर उन्हें परखना तुम्हें ही होगा,
कौन अपना है कौन दरिंदा,
समझना तुम्हे ही होगा,
अगर तूँ रूप दुर्गा का तो हथियार तुम्हें उठाना पडेगा,
अपने अंदर की रजिया,लक्ष्मीबाई को तुम्हें जगाना पड़ेगा,
मैं क्या लिखूँ?
क्या मैं फिर तुम्हें,
दुर्गा का अवतार लिखूँ,
या रजिया,लक्ष्मीबाई की ललकार लिखूँ,
मैं क्या लिखूँ?आखिर मैं क्या लिखूँ?
!!! मधुसूदन!!!

