BEBAS MAJDOOR/बेबस मजदूर
दर्दे-गम बहुत है गिनाऊँ कैसे,
मजबूर हुआ खुद को बचाऊँ कैसे।
हल,कुदाल,घन,चक्की चलाते,
तपती हुई भट्ठी में तन को गलाते,
टप-टप पसीने टपकते रहे,
जलता लहू फिर भी हँसते रहे,
मजदूर हूँ खुद को मजबूर नही माना,
भीख किसे कहते हैं मैंने नही जाना
स्वाभिमानी हम भी,
स्वाभिमान दिखाऊँ कैसे,
मजबूर हुआ खुद को बचाऊँ कैसे।
खाते में व्यापारी तनख्वाह नही डालते,
शोषण कितना,क्या बताऊँ,
क्या तुम नही जानते?
हाजरी,ओवर टाइम,नाईट भी लगाते,
लोहे की मशीन हम से हार मान जाते,
फिर भी गरीबी,ना कोई डगर,
भेड़ों सा जीवन है किसको खबर!
गुत्थी नसीब की सुलझाऊँ कैसे,
मजबूर हुआ खुद को बचाऊँ कैसे।
आज ख्वाब चूर सभी,दूर दीनानाथ आज,
हाथ जगन्नाथ फिर भी हो गए अनाथ आज,
काम नही हाथों में,जान नही आँतों में,
रोटियों से दूर,दूर नींद नहीं आँखों में,
जेब फटे-हाल पड़े पैर में हैं छाले,
आँखें है नम,मौत पग-पग हमारे,
नक्शे पर खुद को रख पाऊँ कैसे,
मजबूर हुआ खुद को बचाऊँ कैसे,
मजबूर हुआ खुद को बचाऊँ कैसे।
!!!मधुसूदन!!!
बहुत दर्द भरी रचना 👌👌
जी मजदूरों का है कौन? बहुत अच्छा लगा आपने मेरे कविता के बाग में आज भ्रमण किया।🙏
ये दुख सालता तो है।😪
धन्यवाद आपका।
यह एक पीड़ा है। जो हमेशा ही इस समाज में रहेगा। क्योंकि मैं अपने मानवीय मुलों को भुल चुका हूँ।😞😞😞😞
कितनी पीड़ा —-शब्द नही बताने को,
कौन है ततपर हम बेबस को हँसाने को?
यथार्थ का वास्तविक चित्रण 👍👍
अति उत्तम सर 👌👌👌
बहुत बहुत धन्यवाद आपका सराहने के लिए।
स्वागत सर 👍🙏