Majduron ka kaun?/मजदूरों का कौन?

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आज मजदूरों की भयावह स्थिति हो गई है। मकान मालिक किराये नही छोड़ रहे, कार्यस्थल पर ताले जड़े, मालिक तनख्वाह नही दे रहा, सरकार की सहायता उन तक पहुंचना मुश्किल,सारे वादे और उसे पूर्ण करनेवाले सियासत में मशगूल,अपने पूरे परिवार,बच्चों संग पैदल चलने को विवश मजदूर।सरकार के पास मौका था उन्हें अपने घर तक पहुंचा कर जख्म पर मरहम लगाने का।  मगर सरकारें नाकाम हो गई।ऐसे में कुछ शब्द तो निकलेंगे ही—-

मौका था धूल जाते सारे
भूल,चूक,और पाप,
मगर मौन सत्ताधारी ना कर पाए इंसाफ,
कैसी बहरी है सरकार,सुन मजदूरों की चीत्कार।
नन्हें-नन्हें पाँव
सड़क पर बढ़ते जाते,
सिर पर गठरी अश्क
नयन से बहते जाते,
हाय!गाँव बहुत है दूर,
शहर बन बैठा है निष्ठुर,
पलायन को सारे मजबूर,
मौत मिल जाते पथ में मुफ्त,
मुफ्त की रोटी की भरमार,
पेट क्यों खाली फिर सरकार,
तुम्हारा ये कैसा व्यवहार!
सुन मजदूरों की चीत्कार,सुन मजदूरों की चीत्कार।
खर्च असीमित करते दल सब,
जब चुनाव आ जाते,
आज जेब उनका भी खाली,
नजर ना कोई आते,
भूख से अक्ल काम ना आती,
सड़कें कौन मुकाम को जाती,
खाते ऊपर से हम लाठी,
ईश्वर की ये कैसी मार,
मुनिया छोड़ चली बीच राह,
कैसा निष्ठुर पालनहार,
सुन मजदूरों की चीत्कार,सुन मजदूरों की चीत्कार।
अगर तुम्हारे बच्चे भी
इस कदर सड़क पर होते,
फिर क्या चैन की नींद घरो में
ऐसे ही तुम सोते,
नन्हें पांव हुए लाचार,
रोते बच्चे जार-जार,
बता इनको कैसे दूं मार,
तुम ही बोलो कुछ सरकार,सहन की सीमा पारावार,
सुन मजदूरों की चीत्कार,सुन मजदूरों की चीत्कार।
!!!मधुसूदन!!!

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