CHUPPI/चुप्पी
सुना है श्रद्धा हो मन में तो रब
पत्थर में मिल जाते हैं,
प्रेम की भाषा इंसां क्या,
पशु-पक्षी,
जानवर भी समझ जाते हैं,
माँ खुश होती,जब बच्चा दूध पी लेता,
दानी खुश होता जब जरूरतमंद को कुछ दे देता,
प्रफुल्लित होती नदियाँ,
किसी की प्यास मिटाकर,
झूम उठते वृक्ष,
अपना फल खिलाकर,
हिम ना पिघलता,
नदियों का कोई वजूद नही होता,
तुम ना होते,
इन शब्दों का भी
कोई मूल्य नही होता,
पतझड़,मधुमास,पावस,
आते जाते
और
आते जाते,
दिवस-रात्रि,
सूर्य और चांद भी,
रुकता कहाँ कुछ!
फिर ये उदासी कैसी?
माना,ठीक नही ज्यादा बोलना,
मगर इतनी चुप्पी भी तो ठीक नही,
हवाओं में घुले मेरे चीखते शब्द,सुनाई नही दे रहे,
मगर दिल में उठते ज्वार भाटे की शोर,
दबाना भी तो ठीक नही,
प्रकृति मुस्कुरा रही,
हवाएँ सरगम सुना रही,
चिड़ियों की शोर,
कभी गोधूलि,कभी भोर,
तुम्हें जीवन का यथार्थ समझा रही,
कुछ भी स्थिर नही,
फिर ये कैसी झिझक!
तुम स्थिर कैसे?
कभी तो कदम बढाकर देखो,
कभी तो पलकें उठाकर देखो,
बेतमलब कभी मुस्कुराकर कर देखो,
कभी तो हमें,कुछ सुनाकर देखो,
क्या पता!
सूखी नदी को जल स्रोत मिल जाए,
और हमें हमारा दोस्त,
जीवन-साथी,
जिसे अपनी दिल की बात अभी तक समझा ना पाए।
!!!मधुसूदन!!!
So deep. Love it 👍🏻
Thank you very much.
सुन्दर अभिव्यक्ति
बहुत बहुत धन्यवाद।🙏
कविता प्रकृति के पास ले आती है ।
🙏🙏
बेहद सुन्दर कविता है।हाँ ज्यादा चुप्पी भी ठीक नहीं वरना दावानल बन जायेगा।
बिल्कुल सही कहा आपने। सुक्रिया आपका।
Umda rachna.
Kayiyon ke man ki baat.
Sahi kaha….Mann ki baten hi to pad ban jaate hain….Dhanyawad apka.
क्या लिखा है सर। बहुत खूबसूरत
धन्यवाद आपका।