Insan ki Pukar
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धरती,अम्बर शुद्ध हवा,पानी फिर भी ना मंगल है,
जहाँ नही हक जीने का निर्बल को,फिर वह जंगल है।
जंगल मे जीव निकलते घर से,
भूखे पेट को चैन कहाँ,
क्या भूख मिटेगी या जीवन ही,
जीव को इसकी खबर कहाँ,
है सजग कान,आंखें चचल,
खतरों से है अनभिज्ञ नहीं,
है मगर बिबसता भोजन की,
घर मे रह पाता जीव नहीं,
बच्चों के संग में नर-मादा,
चौकस रहते मैदानों में,
है भूख मिटाते चारे चुन,
बच्चों के संग मैदानों में,
था घात में हमला बाघ किया,
वे जान बचाते दूर गए,
भोजनकर्ता भोजन बनता,
जो दौड़ में पीछे छूट गए,
है मौत जहाँ पर कदम-कदम,ताक़तवालों का जंगल है,
जहाँ नही हक जीने का, निर्बल को फिर वह जंगल है।
थी स्वर्ग सी दुनियाँ हमें मिली,
जंगल का रूप दिया हमने,
इंसानो को इस दुनियाँ में,
इंसान नहीं समझा हमने,
जब-जब मौका मिलता जिसको,
अपनी ताकत वह दिखलाता,
निर्बल के जीवन को जग में,
सब तृण बराबर दिखलाता,
इंसान से बढ़कर जाति-धर्म,है जहाँ खड़ा वह जंगल है,
जहाँ नही हक जीने का निर्बल को,फिर वह जंगल है।
हे मानव तू कल भी हारा,
तू आज भी बाजी हार गया,
इंसान नही समझा जग में,
खुद को ही जिंदा मार गया,
है देख प्रतिभा झुलस रही
उसका तू अब अपमान ना कर,
जाति-धर्मों की बेड़ी में तू,
ज्ञान को गिरफ्तार ना कर,
जंगल मे सबल गरजता है
है लोकतंत्र बलवानों का,
जाति-धर्मों की महफ़िल में,
अरमान मिटा इंसानों का,
जंगल मे ताकत का मंगल, ये लोकतंत्र भी दंगल है,
जहाँ नही हक जीने का निर्बल को,फिर वह जंगल है।
!!! मधुसूदन !!!
Very nice Sir!😁
Thank you for your valuable comments…..
जादूगरी है लेखनी आपकी
धन्यवाद मित्र।
आपकी बातों से बिलकुल सहमत हूँ —
थी स्वर्ग सी दुनियाँ हमें मिली,
जंगल का रूप दिया हमने,
धन्यवाद आपका आपने पसंद किया और सराहा।
😊👍👍
A very deep thought sir
Thanks for your valuable comments…
आपकी दो कविताएं पढ़ी मैनें…. आप आगे पढ़ने को मजबूर कर रहे हैं। समय निकालकर आगे भी आपको पढ़ना पसन्द करूँगा
जरूर आपका स्वागत है ।सुक्रिया अपने पसंद किया और सराहा।